एक बूँद मिली,एक बूँद गिरी,
फिर बूंदो की बरसात हुई
कब दिन बिता कुछ पता नहीं,
कुछ ज्ञात नही कब रात हुई
मौसम बीते फिर युग बिता,
फिर बितने की शुरुआत हुई
सब बिते ये अटल रहा,
ये अजब अनोखी बात हुई ।
मैं एक मुसाफिर हूँ
मैं देखता हूँ नृत्य
भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी
कत्थक और मणिपुरी
और न जाने क्या क्या ?
सबके अलग रूप,अलग रंग
अलग प्रभाव,अलग ढंग
पर एक सूत्र से जुड़े हुए से –
वही नव रस , नव भाव
वही उद्वेलन,वही बहाव
मैं हर तरीके में छिपा
इतिहास गुनता हूँ
हजारो सालो की परम्परा है
सुनता है
और मन में यह सोच उठती है
कि कितना उन्नत समाज है,
कितनी उन्नत संस्कृति है –
जिसने ऐसी
विविध अभिव्यक्ति पायी है,
जो समय साथ और
निखरती आई है ।
मैं एक मुसाफिर हूँ
मैं देखता हूँ धर्म
और फिर कही देखने की
ज़रुरत नहीं रह जाती
कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं,
जिसकी कथाऍ यहाँ नही पायी जाती ।
और जब पलटता हूँ
पन्ने इतिहास के
तो हिल जाते है
मेरे मापदंड विश्वास के
हिंदूत्व का आधार भी,
इस्लाम का भी ज्ञान है
नानक का है, महावीर का
और बुद्ध का स्थान है
आरती भी है, अज़ान भी
अविश्वास भी, गुरु ज्ञान भी
फिर भी लगता है
मानो एक ही परिवार है
प्रेम का अनुबंध हो
तो क्या अलग आचार है ?
इतनी अनोखी विधियां,
इतने अजब त्यौहार है
कभी दीपों की मालाए है,
कभी रंगो की बौछार है,
ईद का उत्कर्ष भी
दुर्गापूजा का हर्ष भी
क्रिसमस भी , नव वर्ष भी
अजबगजब के रीत है
जन्म हो या शादी हो
सबके लिए गीत है ।
‘कजरी’ है बरसात में,
‘विरहा’ के जज़्बात में
कुछ भी लेकिन व्यर्थ ना,
कोई बात है हर बात में ।
मुहर्रम की आह हो ,
या होलिका का दाह हो
इक न इक अद्भुत कथा,
छिपी है सबके मूल में
भक्ति यहाँ बसती रहती है
पत्थरो में , धूल में ।
मैं एक मुसाफिर हूँ
लगती मुझे जब भूख है ।
मन सोचता क्या खायेगा ?
लाखों किस्म के भोग है,
कुछ न कुछ बच जायेगा ।
भोजन का कोई स्वर्ग हो,
तो ऐसा बेमिसाल हो
सेंकडो तरह की रोटियाँ ,
हजारो तरह की दाल हो ।
मीठा भी हो, तीखा भी हो,
खट्टा मसालेदार हो
चूरन भी हो, चटनी भी हो ,
पापड़ भी हो , अचार हो ।
हो भात भी , डोसा रहे ,
बाटी रहे फिर दाल की
पाव वड़े के संग हो ,
लिट्टी भी को कमाल की ।
मेवा भी हो , मिष्टान भी
कत्थे लगाया पान भी ।
जिंदगी लग जाएगी,
खाने जो बैठे हम यहाँ
इतनी विविध रसोईया,
मिल पायेगी लेकिन कहाँ ?
मैं एक मुसाफिर हूँ
मैं देखता हूँ भाषाएँ
सो मिल पर बदले यहाँ
सेंकडो भाषाएँ है,
है हज़ारो बोलियाँ
हर बोली का औचित्य है,
हर भाषा का साहित्य है
रहीम,खुसरो, मीर है
तुलसीदास, कबीर है ।
गुरुदेव की गीतांजलि,
दोहे कवि रसखान के
ये आस्था के फूल है,
ये गीत है सम्मान के
ग़ालिब की हर ग़ज़ल यहाँ
अकबर यहाँ , बिरबल यहाँ
जो प्रेम का प्रतिरूप है –
वो ताज भी उज्जवल यहाँ ।
हो शिल्प या मूत कला
उत्तम सा शोभायमान है
मंदिरो की भीतिया,
अजंता की गुफाओ पर
खुद कला की देवी को,
होता रहा अभिमान है ।
मैं एक मुसाफिर हूँ
में सुनता हूँ संगीत
में सुनता हूँ संगीत,
तो बिन नाचे रह नहीं सकता
कोन है जो
रागो के बैराग में बह नहीं सकता ?
सितार के झंकार में डूबना
बांसूरी की तान में उतरना
तबले की तिरकिट पे थिरकना
पखावज की धपधप पे मचलना
घंटी की तूंतूं में पिघलना
शहनाई की आवाज से बिलखना
संतूर की सतरंगी आवाज
वीना की मधूमयी लाज –
सब में आनंद की
ऐसी अनुभूति होती है
कि कह नहीं सकता
में सुनता हूँ संगीत,
तो बिन नाचे रह नहीं सकता
फिर बढ़ता हूँ मैं ज्ञान की ओर
जिसका कोई ओर न छोर
वात्स्यायन के कामसूत्र से,
पतंजलि के योगसूत्र तक
धन्वंतरि के आयुर्वेद से,
चाणक्य के अर्थशास्त्र तक
उपनिषदों के गूढ़ मन्त्र से,
भरत मुनि के नाट्य शास्त्र तक
बिछी भी है, लम्बी चौड़ी
ज्ञान की एक चारपाई
शून्य भी जिसमे,
ज्योतिष भी , तारो की गति समाई
जहाँ भिखारी भी
साहित्यिक भजन गाते है
जहाँ योग साधक,
हर नुक्क्ड़ पे मिल जाते है
ज्यामिति की पहली रेखा,
वास्तुशास्त्र का पहला लेखा –
सब कुछ जहाँ समाया,
मैं वो देश घूम के आया ।
मैं एक मुसाफिर हूँ,
एक अद्भुत देश घूम के आया ।
चरण भी जिसके इतने पावन,
कैसे करूँ उसे प्रणाम ?
भारत नहीं महज एक देश,
नहीं महज एक नाम !
भारत एक धाम !
~ विकास कुमार
[Reference:http://www.gujaratsamachar.com/index.php/articles/display_article/anavrut4661%5D
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